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कविता

समय चक्र

दिनेश कुमार शुक्ल


  और उस दिन जब बरसों बाद

  कविता फिर आई

  तो काँप रहे थे तुम्हारे हाथ

  सध नहीं रहा था इन्द्रधनुष तुमसे


थरथरा रहा था वह

रंगो की बाढ़ में ।


अब

तुम्हें खुशी और खूबसूरती

और सपने संभाल पाने की

न तो आदत रही

और ना रहा शऊर ।

अब तुम निहायत अकेले थे

अपनी उदासी और


खुदगर्ज़ ईमानदारी की

अदृश्य दीवारों के घेरे में

अब कोई नहीं आता

कुछ घटित नहीं होता

तुम्हारे असफेरे में ।


कन्नी काट कर

तुम रोज निकल जाते हो --

जलोदर ढोता

भीख मांगता हुआ बचपन,

पराजय के कूएँ में उतराती


जवानी की लाश,

बजबजाते नर्क में

रोटियों के, जूठन के,

टुकड़े बीनता हुआ


मातृत्व --

यह सब अनदेखा करते हुये

अपनी खुदग़र्जी की साइकल पर

तेजी से पैडल मारते मारते

कहीं गिर गये

तुम्हारे दोनो पैर


और हाथ

तब्दील हो गये हैंडिल में,

- और तुम बन गये कबन्ध --

और पता नहीं चला तुम्हें ।


लेकिन याद करो तब

जब

तुम कुर्सी या तरक्की या पे स्केल नहीं थे

तब

जब तुम


अपनी ख़ुदी से इतने बेमेल नहीं थे ।


यस्सर

तब

जब तुम उगते हुये सूरज को

अपने परचम पे सजा लेते थे,


और चिलचिलाती

मई की धूप का मजा लेते थे

और मानते थे


(बल्कि जानते थे)

कि दुनिया बदली जा सकती है

तब तुम दुनिया बदलना चाहते थे।


तब

तुम बहुत लोग थे,

सबके दुख-सुख तुम्हारे बिल्कुल अपने थे,

कैसा जमाना था

कि एक जैसे तुम सबके सपने थे,

अगर

कभी पड़ भी गये अकेले

तो तुम सबके साझे गीत

किसी जादुई वसंत की सृष्टि कर जाते थे

और कविता की मृदंग तो

बजती ही रहती थी रगों में तुम सबकी ।


लेकिन अभी उस दिन

जब बहुत दिनों बाद

कविता फिर आई

तो काँप रहे थे तुम्हारे हाथ ...।


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